११. केवल सोच को नहीं, दृष्टिकोण को बदलिए
आजकल अनेक सैल्फ-हैल्प पुस्तकें सलाह देती हैं – “अपनी दृष्टी बदलिए, सकारात्मक सोचिये|”
सकारात्मक सोच निश्चित ही अच्छी है, परन्तु हमारी सोच तभी पूर्ण सकारात्मक हो सकती है जब हम न केवल अपनी सोच को अपितु अपने दृष्टिकोण को भी बदलें| अर्थात्, हम कैसे देखते हैं, इसके साथ-साथ हम कहाँ से देखते हैं, वह भी महत्वपूर्ण है|
मान लीजिए हम किसी ऊँची इमारत के नीचे खड़े हैं| हम स्वयं को बौना महसूस करेंगे| परन्तु यदि हम हवाई जहाज में बैठकर उसके ऊपर उड़ने लगे तो वही इमारत छोटी हो जाएगी| इमारत वही है परन्तु अब वह छोटी लगने लगी है| यह केवल सोच बदलने से नहीं अपितु दृष्टिकोण बदलने से हुआ है| अधिकांशतः दृष्टिकोण बदले बिना केवल सोच बदलने का प्रयास कल्पना होती है| जब तक हम उस ऊँची इमारत के नीचे खड़े रहेंगे हम उसे छोटी नहीं देख सकते|
भगवद्गीता आरम्भ में ही हमारा दृष्टिकोण बदलती है| कैसे? हमारी स्थिति बदलकर| भगवद्गीता हमें हमारे परिवेश एवं परिस्थितियों से ऊपर उठाकर हमारी सोच को बदलती है| गीता (२.१३) में बताया गया है कि मूल रूप से हम अविनाशी आत्मा हैं और भौतिक जड़ वस्तुओं से भिन्न एवं श्रेष्ठ हैं| जिस भौतिक शरीर को हम अपनी सच्ची पहचान मानते हैं वह हमारी आत्मा के ऊपर पड़ा हुआ एक अस्थाई वस्त्र है|
हवाई जहाज में उड़ते समय धरती पर होने वाली उथल-पुथल हमें प्रभावित नहीं कर पाती है| हम जानते हैं कि हम उनसे कहीं ऊपर हैं| हाँ, हवाई जहाज पर धरती से मिसाइली हमला करके उसे नष्ट किया जा सकता है, परन्तु हमारी आत्मा किसी भी भौतिक साधन द्वारा नष्ट नहीं की जा सकती है| चाहे कितना भी बड़ा खतरा क्यों न हो, वह हमारी आत्मा को हानि नहीं पहुँचा सकता| और हम भक्तियोग के पालन द्वारा स्वयं इसका अनुभव कर सकते हैं|
जब भी इस संसार की समस्याएँ और नकारात्मकताएँ हमें घेर लें तो हमें केवल यह स्मरण करना है कि हम अविनाशी हैं| यह बदला हुआ दृष्टिकोण हमारी चेतना को शान्ति एवं विश्वास से भर देगा| तब न केवल हमारी सोच अपितु हमारा जीवन भी सकारात्मक हो जायेगा|
जिस प्रकार देहधारी आत्मा निरन्तर इस शरीर में बाल्यावस्था से युवावस्था में तथा युवावस्था से वृद्धावस्था में जाती है, उसी प्रकार मृत्यु के पश्चात् यह दूसरी देह में प्रवेश करती है| धीर पुरुष इस परिवर्तन से भ्रमित नहीं होते|
(भगवद्गीता २.१३)