४ . दुखों को दुर्भाग्य मानने वाले लोग आध्यात्मिक विकास का अवसर गँवा देते हैं
अपने ऊपर अकारण आयी समस्या को देखकर सहज रूप से हमारे मन में प्रश्न उठता है, “ऐसा क्यों?”
अधिकांश लोग दुर्भाग्य कहकर इसे सहन करने के लिए कहेंगे। हमें विश्वास दिलाने का प्रयास करेगें कि शीघ्र ही हमारे अच्छे दिन लौट आयेंगे।
किन्तु दुखों को केवल दुर्भाग्य मान लेने से हम आध्यात्मिक विकास के अवसर से वंचित रह जाते हैं। दुःख हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। भगवद्गीता इसका स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है। गीता के आरम्भ में (१.२७) अर्जुन अपने सम्बन्धियों के साथ युद्ध लड़ने के विचार से दुःखी हो जाते हैं। परन्तु श्रीकृष्ण उनके इस दुःख को दुर्भाग्य कहकर ख़ारिज नहीं करते, अपितु आत्मा तथा नियति से सम्बन्धित मूलभूत शिक्षाएँ देकर अर्जुन को ज्ञान का प्रकाश देते हैं।
गीता का ज्ञान बताता है कि हम सब अजर-अमर जीवात्मा हैं और इस समय संसार की अस्थाई वस्तुओं में सुख खोज रहे हैं। इस संसार का स्वभाव जीवात्मा के स्वभाव के विपरीत है, और यही बेमेल परिस्थिति हमारे दुःखों को जन्म देती है। इस संसार में हम कितनी भी भौतिक वस्तुएँ क्यों न प्राप्त कर लें, हम उनके अस्थाई स्वभाव को नहीं बदल सकते। फलत: हम दुःखों से मुक्त नहीं हो सकते।
क्या इसका अर्थ यह हुआ कि हम चुपचाप दुःख भोगते रहें? नहीं।
गीता हमें इन दुःखों का सामना करने की कला सिखाती है। हमें अपनी भौतिक स्थिति को सुधारने के स्थान पर अपने अध्यात्मिक विकास को महत्व देना होगा। हम सब सत्-चिद्-आनंद (सनातन, ज्ञानमय एवं आनंदमय) आत्मा हैं। भक्तियोग के द्वारा हम जितना अधिक अपनी आत्मा के निकट जायेंगे, उतना अधिक अपने अन्तर्मन में बसे सुख का आनन्द ले पायेंगे। परन्तु योग-पथ पर आगे बढ़ने के लिए हमें सब से पहले अपने दुःखों को दुर्भाग्य समझना बंद करना होगा। दुःख हमें स्मरण करवाते हैं कि हमारी अमर आत्मा इस मरणशील शरीर में फंसी हुई है। दुःख इन दोनों के बीच बेमेलता को उजागर करते हैं।
जीवन में आने वाले दुःख हमें भक्ति करने की प्रेरणा देते हैं जिससे हम अपनी चेतना को ऊपर उठा सकें। चेतना विकसित होते ही दु:खों को देखने का हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है। न केवल हम अपने जीवन में आने वाली समस्याओं से अच्छी तरह निपट पाते हैं, अपितु हमें भगवान् के आश्रय तथा आतंरिक संतोष की अनुभूति भी होती है. यही सारी समस्याओं का सर्वोच्च समाधान है।
जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने अपने सारे मित्रों एवं सम्बन्धियों को देखा तो अत्यन्त करुणा एवं विषाद से व्याकुल होकर वे बोलने लगे।
भगवद्गीता १.२७