७. श्रीकृष्ण का मार्गदर्शन बिगाड़ता नहीं सुधारता है
भगवद्गीता के आरम्भ में अर्जुन अपने परिजनों के साथ युद्ध का विचार करके शोकग्रस्त हो जाते हैं| यह युद्ध उनके अधिकांश प्रियजनों तथा समाज की रक्षा करने वाले क्षत्रियों की मृत्यु का कारण बनने जा रहा था| युद्ध-विरोधी तर्क देते हुए अर्जुन श्रीकृष्ण को जनार्दन नाम से संबोधित करते हैं (१.३५)| इस शब्द का अर्थ है विश्व का पालन करने वाला| अर्जुन का आशय था कि विश्व का पालन करने वाले श्रीकृष्ण क्यों उन्हें इस विश्व-विनाशी युद्ध के लिए प्रेरित कर रहे हैं|
अर्जुन के प्रश्नों के उत्तर में श्रीकृष्ण उन्हें गीता का अद्भुत ज्ञान देते हैं| अर्जुन को भय था कि यह युद्ध सामाजिक व्यवस्था को बिगाड़ न दे| गीता का ज्ञान बताता है कि श्रीकृष्ण के निर्देशों का पालन करने से नहीं अपितु उनकी उपेक्षा करने से सामाजिक व्यवस्था बिगडती है| गीता के तीसरे अध्याय में कहा गया है कि यदि देश के नेता आवश्यकता पड़ने पर धर्म-रक्षा हेतु हिंसा नहीं करेंगे तो उनका गलत उदहारण लोगों को आलसी और गैर-जिम्मेदार बना देगा| धर्मं नष्ट हो जायेगा| परिणामस्वरूप अधर्मी दुराचारी लोग फलने-फूलने लगेंगे और समाज उथल-पुथल हो जायेगा|
अधर्मी कौरवों ने षडयंत्रों द्वारा धर्मपरायण पाण्डवों का राज्य हड़पकर उन्हें वनवास भेज दिया| यदि ऐसे दुराचारियों को रोका नहीं जाता तो वे पूरे समाज को दुर्गति और दुर्गुणों की ओर ले जाते| संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था बिगड़ जाती| दूसरी ओर, यदि अर्जुन श्रीकृष्ण की इच्छानुसार युद्ध करके धर्म की स्थापना करते हैं तो पुनः सामाजिक व्यवस्था कायम हो सकती है|
इसी प्रकार, यदि हम अपने जीवन में श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ स्वीकार करते हैं तो आरम्भ में हमें कुछ उथल-पुथल प्रतीत होगी| परन्तु यदि हम सावधानी एवं दृढनिश्चय के साथ धर्मपथ पर अग्रसर होते रहें तो हमें अपने जीवन में सुधार दिखाई देगा| हमें असीम सुख एवं शांति का अनुभव होगा| इतना ही नहीं, हम भगवान् के हाथों में एक यन्त्र बनकर अन्य लोगों का जीवन सुधारने में सहायता कर सकेंगे|
हे जनार्दन! पृथ्वी तो क्या, यदि मुझे तीनों लोकों का राज्य प्राप्त हो फिर भी में युद्ध नहीं करूँगा| धृतराष्ट्र पुत्रों का वध करके हमें कौन-सा सुख प्राप्त होगा?
भगवद्गीता १.३५