3. उत्कृष्ट सेवा द्वारा भक्ति की अभिव्यक्ति
भक्ति का सम्बन्ध हृदय से है। इस अवस्था में व्यक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति सहज आकर्षण का अनुभव करता है। किन्तु वह भक्ति हमारे कार्यों में दिखाई देना चाहिए, क्योंकि जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो हम उसके लिए कुछ करना चाहते हैं।
अर्जुन इसके सुन्दर उदाहरण हैं। उन्होंने जीवनभर अपनी धनुर्विद्या का ध्यानपूर्वक अभ्यास किया जिससे वे श्रीकृष्ण की सेवा में उस कला का उपयोग कर सकें। हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं है कि जब तक वे दक्ष धनुर्धारी नहीं बन गये तब तक उन्होंने भगवान् की भक्ति नहीं की। वे सदा-सर्वदा श्रीकृष्ण के भक्त थे। वे जानते थे कि भगवान् भावग्राही हैं और सरल कार्यों से भी प्रसन्न हो जाते हैं। परन्तु फिर भी वे आलसी नहीं बने। अत्यन्त सावधानीपूर्वक उन्होंने धनुर्विद्या का अभ्यास किया। भगवद्गीता (१.२४) में अर्जुन को गुडाकेश कहा गया है, अर्थात् जिसने नींद और आलस्य को जीत लिया है। यह शब्द दर्शाता है कि अपनी कला में दक्षता प्राप्त करने के लिए अर्जुन ने अथक प्रयास किए।
किस प्रकार अर्जुन ने अपने आलस्य और निद्रा पर विजय प्राप्त की, महाभारत इसकी कथा बताती है। एक दिन अर्जुन द्रोणाचार्य के गुरुकुल में रात्रि भोजन कर रहे थे। सहसा हवा का तेज झोंका आया और निकट रखा दीपक बुझ गया। घुप्प अंधकार में भोजन करते हुए अर्जुन के मन में एक विचार कौंधा – “यदि मैं अंधेरे में खा सकता हूँ तो फिर अंधेरे में धनुर्विद्या का अभ्यास क्यों नहीं कर सकता?” जहाँ एक ओर पूरी दुनिया सो रही होती, अर्जुन अपनी धनुर्विद्या का अभ्यास करते। कुछ ही समय में वे इस कला में इतने पटु हो गये कि केवल ध्वनि सुनकर अचूक निशाना लगाने लगे।
इसी प्रकार यदि हम श्रीकृष्ण की सर्वोत्कृष्ट सेवा करने का प्रयास करेंगे तो हमारा दृढ़निश्चय उन्हें प्रसन्न करेगा और वे हमें गहन भक्ति प्रदान करेंगे। यदि हम निष्ठापूर्वक श्रीकृष्ण की सेवा करते हैं अथवा सेवा करने की इच्छा भी करते हैं तो शीघ्र ही श्रीकृष्ण हमें इसका फल प्रदान करेंगे और हमारा हृदय मधुर भक्ति-भावनाओं से ओत-प्रोत होकर संतुष्ट हो जायेगा।
संजय ने कहा, “हे भरतवंशी, इस प्रकार अर्जुन के वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच उस सर्वोत्तम रथ को खड़ा कर दिया। ।”
भगवद्गीता १.२४