5. भावनाओं की अभिव्यक्ति है स्वस्थ मन की ओर पहला कदम
भगवद्गीता के आरम्भ में अर्जुन चिन्तित एवं शोकग्रस्त हो जाते हैं| वे भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मुख अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं| राहत प्राप्त करने के लिए वे श्रीकृष्ण की शरण लेते हैं (२.७), और गीता के अन्त में (१८.७३) वे स्वीकार करते हैं कि उनकी नकारात्मक भावनाएँ नष्ट हो गयी हैं. उनका मन स्वस्थ हो गया है|
भक्तियोग भगवद्गीता का सार है| भक्तियोग की पद्धति हमारी भावनओं को स्वस्थ करती हैं| सांसारिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण के कारण हमारी भावनाएँ रोगग्रस्त हैं| भौतिक वस्तुएँ क्षणभंगुर तथा निरन्तर परिवर्तनशील हैं| फलतः उनके प्रति आसक्ति सदैव दुःख एवं पीड़ाओं को जन्म देती है| इस संसार को भोग करने की हमारी समस्त मानसिक एवं भावनात्मक समस्याओं की जड़ है|
भक्तियोग हमारी भावनओं को सांसारिक वस्तुओं से हटाकर श्रीकृष्ण की ओर मोड़ता है| हमारी भावनाएँ शुद्ध हो जाती हैं|
भक्तिपथ पर हमें अर्जुन के उदाहरण का अनुसरण करना होगा| हमें अपने आध्यात्मिक गुरु या शिक्षक के सम्मुख अपनी उन भावनाओं को व्यक्त करना चाहिए जो हमें अत्यधिक प्रभावित कर रही हैं| परन्तु भावनाओं को व्यक्त करना स्वस्थ मन की दिशा में केवल पहला कदम है| यह मंजिल नहीं है. यदि किसी ने हमारे साथ गलत व्यवहार किया है, हमारा दिल दुखाया है तो हमें चाहिए कि उन भावनाओं को हर समय मन में उठाकर न घूमें| न ही अपना मन हल्का करने के लिए उन्हें दूसरों के सिर पर लादें या अपनी पीड़ा में सुख लें|
इन भावनओं से मुक्त होने के लिए हमें भक्ति का अभ्यास करना होगा| जिस प्रकार उचित उपचार प्राप्त करने के लिए रोगी डॉक्टर को अपने रोग के लक्षण बताता है, उसी प्रकार भक्ति का पूरा लाभ प्राप्त करने के लिए हमें अपने शिक्षक (गुरु) के सम्मुख अपना मन व्यक्त करना होगा|
उचित मार्गदर्शन द्वारा अपनी भावनाओं को नाप-तोलकर हम अपने रोग को अच्छी तरह समझ पायेंगे और उसका आवश्यक उपचार करेंगे| हमारी भावनाओं को उत्तेजित करने वाली सांसारिक वस्तुएँ हमारे रोग के लक्षण हैं| वे हमारी आसक्तियों तथा दुर्बलताओं को उजागर करती हैं| इनसे हमें अपनी रक्षा करनी है| और हमारे हृदय में सकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न करने वाले भक्तिमय कार्य आध्यात्मिक रूप से हमारा उपचार करते हैं| जितना अधिक हम इन कार्यों को करेंगे हमारी तपस्याएँ सरल तथा भक्ति सरस होती जाएगी|
मेरा पूरा शरीर काँप रहा है, देह में रोमांच हो रहा है, हाथों से गाण्डीव फिसला जा रहा है और त्वचा जल रही है|
(भगवद्गीता १.२९)