How can a person suffering from an incurable disease overcome resentment – Hindi?
Anwser Podcast
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लिप्यंतरण: केशवगोपाल दास
प्रश्न: जब कोई व्यक्ति असाध्य जानलेवा रोग से ग्रसित होता है तब उसका मन उसे बहुत परेशान करता है। वह व्यक्ति अपने मन की परेशानियों पर कैसे काबू पा सकता है?
उत्तर: जब कोई व्यक्ति किसी असाध्य जानलेवा रोग जैसे कैंसर इत्यादि से ग्रसित हो जाता है तो उसका मन चार विभिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरता है – नकारना, घृणा, स्वीकार, तैयारी।
पहली अवस्था में वह तथ्यों को नकार देता है – “ऐसा हो ही नहीं सकता”, “देखिए कहीं कोई भूल हो गई होगी”, “किसी अन्य डॉक्टर को दिखाते हैं” इत्यादि। दूसरी अवस्था होती है रोष अथवा घृणा की – “ऐसा क्यों हुआ”, “मैंने ऐसा क्या किया कि मुझे कैंसर हो गया”। इस अवस्था में मन बहुत परेशान करता है। तीसरी अवस्था में वह अपनी स्थिति को स्वीकार करने लगता है। चौथी अवस्था में वह अपने अंतिम समय के लिए तैयार हो जाता है।
रिश्तेदार, मित्र आदि लोग ऐसे व्यक्ति को घृणा से स्वीकार अवस्था तक लाने में सहायता कर सकते हैं। जैसे कई बार किसी पिता की मृत्यु होने वाली होती है किन्तु उस पिता का अपने पुत्र के साथ सम्बंध में कुछ तनाव बना होता है। यह तनाव पिता को बहुत परेशान करता है और उसका आत्मा इस कारणवश शरीर नहीं छोड़ पाता। ऐसे में मित्रगण, रिश्तेदार इत्यादि उन पिता और पुत्र को एक दूसरे के नजदीक लाने में सहायता कर सकते हैं। पुत्र से अपने सम्बंधों में आए तनाव को सुलझा कर पिता भावनात्मक रूप से संतुष्टी का अनुभव करता है और आसानी से अपना शरीर छोड़ पाता है।
अन्यों की सहायता के अलावा उस व्यक्ति को भी समझना चाहिए कि यदि वह घृणा की अवस्था से ही चिपका रहेगा तो वह स्वयं तो अप्रसन्न रहेगा ही किन्तु अन्यों को भी अप्रसन्न रखेगा। उस व्यक्ति को भी अपनी बुद्धि को प्रयोग करना चाहिए। यदि मैं मुम्बई जा रहा हूँ और किसी कारण ड्राईवर गलती से मुझे पूना ले जाता है, तो स्वाभाविक है मैं पूना पहुँच कर उस ड्राईवर पर बहुत कुपित होऊँगा। मैं स्वयं भी अपने को कोसूँगा कि मैंने ऐसी गलती क्यों की। स्वयं को कोसना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है किन्तु निरन्तर स्वयं को या ड्राईवर को कोसते रहने से कोई लाभ नहीं होगा। पहले इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि गलती हुई और मैं मुम्बई के बदले पूना आ गया। अब ड्राईवर से कहते हैं कि मुझे मुम्बई ले चले।
किसी की सहायता कैसे करनी है यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इसका कोई एक उत्तर नहीं है। हम उसे किसी ऐसे व्यक्ति से मिला सकते हैं जो स्वयं इस परिस्थितियों से गुजर रहा हो और अपनी अवस्था को स्वीकार कर चुका हो। अंग्रेज़ी में एक कहावत है – मैं तब तक इस बात की शिकायत करता रहा कि मेरे पास जूते नहीं हैं जब तक मैं उस व्यक्ति से नहीं मिला जिसके पास पैर ही नहीं थे।
ऐसी विषम परिस्थितियों में घृणा का भाव होना बेहद स्वाभाविक है। किन्तु घृणा की अवस्था में बने रहना एक समस्या हो सकती है। द्रौपदी के वस्त्रहरण के बाद जब वह जंगल में श्रीकृष्ण से मिलती है तो वह उनसे पूछती है कि आप मेरी सहायता के लिए क्यों नहीं आए, मैंने आपको कितना पुकारा। हालांकि द्रौपदी की साड़ी श्रीकृष्ण की कृपा से ही बढ़ी थी किन्तु श्रीकृष्ण वहाँ प्रत्यक्ष उपस्थित नहीं थे। इसलिए द्रौपदी का इस प्रकार रुष्ट होकर प्रश्न पूछना स्वाभाविक है। हमें चाहिए कि हम ऐसी परिस्थिति में फंसे व्यक्ति की यथासंभव सहायता करें और बुद्धि का इस्तेमाल करके उन्हें घृणा की अवस्था से निकाल कर स्वीकार अवस्था की ओर ले जाऐं।