How can we grow spiritually when we have to serve demanding people – Hindi?
Transcribed by: Manju Agrawal Mataji
प्रश्न: परिवार में जब हमें अत्यधिक अपेक्षा रखने वाले किसी व्यक्ति की सेवा करनी होती है, तो हमें काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ऐसे परिस्थिति में हम आध्यात्मिक प्रगति कैसे कर सकते हैं?
उत्तर: सेवा के सम्बंध में तीन परिस्थितियाँ संभव हैं। पहली परिस्थिति में हम ऐसे लोगों के साथ सेवा करने का अवसर मिलता है जिसमें साथ-साथ सेवा करने में बड़ा आनन्द आता है। दूसरी परिस्थिति में हम अपनी सेवा अलग-अलग करते हैं और एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं रहता। तीसरी परिस्थिति में हम ऐसे व्यक्तियों के साथ होते हैं जिनके साथ सेवा करने में हमें बड़ी कठिनाइयों का समना करना पड़ता है। ऐसे लोगों के साथ सेवा करना ही अपने आप में एक अन्य सेवा के समान होता है। अर्थात पहली सेवा तो वह कार्य जिसे हमें पूर्ण करना है और दूसरी सेवा उन कष्टों को झेलना जो उस व्यक्ति के साथ कार्य करने से उत्पन्न होते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि चाहे परिस्थिति कोई भी हो, हमें अपनी सेवा को आगे बढ़ाते रहना चाहिए। श्रीमद्भागवत में कुंती महारानी कहती हैं, “जैसे गंगा हमेशा सागर की ओर ही जाती है, वैसे मेरी चेतना भी भगवान की ओर जाती रहे।“
हमारे जीवन में अलग-अलग रिश्ते हैं, अलग-अलग जिम्मेदारियां हैं । वास्तव में ये सब अलग-अलग माध्यम हैं, जिनके द्वारा हमारी चेतना और सेवा भगवान की ओर जा रही है। कभी-कभी किसी माध्यम में अवरोध आ जाता है तो अन्य माध्यम सुलभ हो जाता है। ये हरेक की परिस्थिति में अलग-अलग हो सकता है। पर हमें ये देखना है कि मुझे भगवान की सेवा में लगे रहना है। तो यदि हमारे जीवन में ऐसे व्यक्ति हैं, जिनके साथ आदान प्रदान करने में हमें बहुत कठिनाई होती है, जिनके लिए सेवा करना बहुत कठिन है, तो इसे हमें अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के क्षय के रूप में देखना चाहिए। साथ-साथ हमें अपने मन पर संतुलन भी रखना चाहिए। अपनी चेतना को भी स्वस्थ रखना चाहिए। मुझे यह भी देखना चाहिए कि मेरे जीवन में ऐसे व्यक्ति भी हैं जिनसे मेरा सम्बंध बड़ा मधुर है, जो मेरा बड़ा मान करते हैं, मेरी भावनाओं को भी समझ्ते हैं।
कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिन्हें हम चाहें जितना भी प्रसन्न करने का प्रयास करें, वे प्रसन्न नहीं होते और कुछ ऐसे होते हैं, जिनके लिए जरा सी भी सेवा करने पर वे बहुत प्रसन्न हो जाते हैं। अकसर हम इन दूसरे तरह के व्यक्तियों पर हम ध्यान नहीं देते। कहने का भाव यह है कि कुछ सम्बन्ध ऐसे होते हैं, जिनके द्वारा हमें बहुत ऊर्जा मिलती है, और कुछ ऐसे होते हैं जिनको निभाने के लिये हमारी बहुत ऊर्जा लगती है। ये दोनों प्रकार के संबंध हर व्यक्ति के जीवन में होते हैं।
यदि हमारे कुछ संबंध ऐसे हैं, जिन्हें निभाने में हमारी बहुत ऊर्जा लगती है, किन्तु वह जिम्मेदारी अनिवार्य है तो यदि हम इस जिम्मेदारी को सेवा की भावना से करने का प्रयास करें तो हम उससे प्रगति करेंगे। पर यदि उस सेवा को करने में हमारा मन इतना विचलित होता है कि हम चिड़चिड़े हो जाऐं, मायूस हो जाऐं और चेतना का भी ह्रास हो, तो हमें कोई ऐसा सम्बंध या सेवा खोजना चाहिये, जिससे हमें ऊर्जा मिल सके। उदाहरणार्थ भक्ति के कोई ऐसा कार्य जिन्हें करने से शक्ति और आत्मिक शांति प्राप्त हो सके।
इस प्रकार दूसरों की सेवा करना यदि आवश्यक है, तो उसमें हमें अपनी सामर्थ्य के बाहर नहीं जाना चाहिए। यदि हम आदरभाव में, किन्तु दृढ़ संकल्पी रहते हैं तो वे लोग भी समझ जाते हैं। अलग-अलग सम्बंधों में अलग-अलग सीमाऐं होती हैं, और यदि कोई सीमा निर्धारित नहीं है, तो यह समस्याऐं पैदा कर सकता है। जब हम इस बात को समझ लेते हैं कि मेरी पहली आवश्यकता है – अपनी ऊर्जा का अर्जन, चेतना का विकास एवं शांति की प्राप्ति, तो वे कठिन सम्बंध भी मेरी सहनशीलता और नम्रता को बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं। इस प्रकार शांति बनाए रख कर हम आध्यात्मिक मार्ग में प्रगति कर सकते हैं।
End of transcription.
Answer by His Grace Chaitanya Charan Prabhu
(www.thespiritualscientist.com)