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How can we understand that we are servants of Krishna – Hindi?


 

Transcriber: Manju Agrawal Mataji

प्रश्न: इस भौतिक जगत में रहते हुए हम कैसे अनुभव करें कि हम भगवान के सेवक हैं और भगवान हमारे नियंत्रक?

उत्तर: हम अपने जीवन में अकसर अनुभव करते हैं कि हमारा जीवन केवल हमारे नियंत्रण में नहीं है। हमसे परे भी ऐसी कोई शक्ति अवश्य है जो हमारा जीवन नियंत्रित करती है। यह हम कुछ उदाहरणों के माध्यम से समझ सकते हैं।
एक टैनिस खिलाड़ी अपने एक कान में एक रिंग पहनता था और उसे पहनने के पश्चात वह अच्छा खेलता था। इससे वह यह समझने लगा कि वह रिंग ही उसके सौभाग्य का कारण है। इस बात से उस खिलाड़ी की मानसिकता का पता लगता है। कहीं न कहीं अपने मन में वह यह समझता था कि उसके नियंत्रण के परे भी ऐसा कुछ है जो उसके कार्यों के फलों का नियंत्रण करता है। उसका स्वयं का प्रदर्शन, उसका परिश्रम इत्यादि मायने रखता है, लेकिन वही सबकुछ नहीं है।

कई बार हम देखते हैं कि कोई क्रिकेट खिलाड़ी बहुत अच्छी बल्लेबाजी करता है पर कभी-कभी वह “आउट-ऑफ-फॉर्म” हो जाता है। उसमें क्षमता होते हुए भी वह अपनी क्षमता पर नियंत्रण नहीं रख पाता। ऐसा इसलिए क्योंकि उसकी क्षमता उसके अकेले की नहीं होती है अपितु भगवान की कृपा से मिलती है। वह क्षमता भी सदैव हमारे साथ नहीं रहती। कभी रहती है, कभी चली जाती है। हमारी उपलब्धियाँ हमारे अकेले की नहीं किन्तु भगवान से भेंट स्वरूप मिलती हैं।

कभी-कभी उचित प्रयास और मेहनत के पश्चात भी हमें यश और सफलता नहीं मिलती। तब हम अपने भाग्य को दोष देने लगते हैं। भाग्य कभी हमारे अनुकूल होता है तो कभी प्रतिकूल। कई बार पर्याप्त मेहनत के बिना भी सफलता मिल जाती है। इससे हम समझ सकते हैं कि हमारा कर्म हमारे नियंत्रण में है किन्तु फल नहीं।

हमारी चेतना दो प्रकार की होती है- भौतिक और आधात्मिक। भौतिक चेतना में हम सोचते हैं कि जो हमारे नियंत्रण में नहीं है, वह हमारी असफलता और दुर्बलता का लक्षण है। यदि हम अपना नियंत्रण बढ़ाऐंगे, तो सफलता प्राप्त कर लेंगे। इसके विपरीत, आध्यात्मिक चेतना में हम सोचते हैं कि जो हमारे नियंत्रण में है और जो नहीं है, वे दोनों ही भगवान के नियंत्रण में हैं। जो हमारे नियंत्रण में है भी, उसे नियंत्रित करने की क्षमता भी हममें भगवान से ही प्राप्त होती है। भगवान की हमारे लिए कोई योजना है जिसका हमें अभी ज्ञान नहीं पर उचित समय पर प्रकट हो जाएगा।

वास्तव में हम सब परम नियंता भगवान के अधीन हैं। यदि हम भगवान की अधीनता स्वीकार नहीं करते तो धीरे-धीरे हम विपरीत बुद्धि के अधीन हो जाते हैं। ऐसा मनुष्य धीरे-धीरे अपने मन और इन्द्रियों का दास बन जाता है। गीता 15.7 में भगवान बोलते हैं कि हम सब उनके अंश हैं अर्थात उनके सेवक हैं। यदि हम भगवान की सेवा नहीं करते हैं तो हम अपने मन और इन्द्रियों की सेवा करने लगते हैं अर्थात इन्द्रियों के दास बन जाते हैं।

यदि हम स्वयं के जीवन के विषय में विचार करें तो पायेंगे कि हम सदैव एक सेवक ही तो हैं। हम राष्ट्र के सेवक हो सकते हैं, परिवार के सेवक हो सकते हैं, अपनी इन्द्रियों के सेवक हो सकते हैं, अपनी आदतों के सेवक हो सकते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि – राष्ट्र, परिवार, इन्द्रियाँ इत्यादि – ये सब जिस परमेश्वर के नियंत्रण में है, वास्तव में हम उस ईश्वर के सेवक हैं। यदि हम यह स्वीकार कर लें कि हम वास्तव में भगवान के सेवक हैं, तो उपरोक्त सभी सेवाओं से मुक्त हो सकते हैं।
इस प्रकार आत्म निरीक्षण कर हम समझ सकते हैं कि हम वास्तव में भगवान के ही सेवक हैं।

End of transcription.

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