How could Yudhishthira stake his own wife in gambling?
Answer Podcast
Transcribed by: Bhabesh Mishra
Edited by: Keshavgopal Das
Question: How could Yudhishthira have gambled his own wife?
Answer: When invited for gambling, Yudhishthira had no desire for gambling because he felt that it would lead to conflict or even lead into a war. However, he was goaded. Consequently, he started gambling more and more. Eventually as the gambling went on, the fever caught him also.
We may ask how a virtuous person like Yudhishthira gambled to such an extent. I would suggest we look at this in another way – even a virtuous person like Yudhishthira could get so much caught up in the frenzy of gambling. Such is the frenzy which gambling can subject a person to.
Yudhishthira of course was thinking, “I have lost so much. I have lost my weapons, jewels, kingdom, in fact lost everything. Somehow, I have to regain these things.” He was hoping that by the next gamble, his luck will turn around and he would regain. That is why, when he lost everything, he gambled Nakula and Sahadeva. After that, Shakuni goaded him and said, “It seems you love Kunti’s sons more than Madri’s. That is why you have gambled Madri’s sons, but you are not ready to gamble Kunti’s sons.” The five Pandavas were one. Although, they were stepbrothers, they were closer than most brothers are. Yudhishthira was infuriated by this accusation. He said, “You fool. We five Pandavas are like the five fingers of a hand. We are all united. How dare you create disassociation among us?” Shakuni immediately became apologetic. He changed his face and said, “Sorry, sorry. In the heat of the moment I might have spoken something, please forgive me. You are my superior in every way. Let us continue gambling.” Shakuni put on a repentant face but he got his purpose served. Then Yudhishthira staked Arjuna and lost him. He then staked Bhima and lost him too. Then he staked himself and lost himself also.
At this point he had lost everything. Now, Shakuni suggested, “You still have one thing to stake and that is Draupadi.” When the name of Draupadi was mentioned, the whole assembly erupted in agony and horror. Yudhishthira himself was shocked at the prospect. Then he thought she has no protectors now. Her husbands have become slaves and surely if I stake Draupadi, at least now I might be able to win. If I can win then I can get back what I have lost. Then we will at least have some life, otherwise what life will Draupadi have? It is not that Yudhishthira’s reasoning was right but that is how it was. Then at this particular point, he decided to gamble Draupadi.
Now if we see, the significant thing is that he gambled his brothers before he gambled himself. He gambled Draupadi afterwards. This means he actually considered Draupadi far more valuable. It was not that he gambled her casually. He was, first of all, bound by instructions of others to gamble. He was goaded by others to keep gambling to scandalous extent. He was not just caught in the fever of gambling but was in despair because he did not want to lose everything. Thus, he ended up gambling Draupadi also.
We can say from the spiritual and devotional perspective, it was all arranged in such a way that Krishna eventually rescued Draupadi. Yudhishthira’s actions were orchestrated by the Lord in such a way that He could demonstrate – “ultimately, we have no protector except Krishna”. Draupadi had five heroic husbands who had few parallels in the world. Practically no parallels. Yet such husbands were rendered helpless at that particular point. She couldn’t turn to them for help. She turned to Krishna and He helped her.
From a transcendental perspective, Yudhishthira’s actions were orchestrated by the Lord so that He could demonstrate this truth that we have ultimately no protector except Krishna. However, from the circumstantial perspective, we can understand that Yudhishthira gambled because of the instructions of his elders, goading of Shakuni, being caught in the fever of gambling and because of the desperate hope that somehow, he could undo the damage that had happened. That is how he ended up gambling Draupadi.
End of transcription.
Transcription in Hindi
प्रश्न: क्या धर्मराज युधिष्ठिर का अपनी ही पत्नी को जुए में दाँव पर लगाना अनुचित नहीं था?
उत्तर: जब महाराज युधिष्ठिर को जुए के लिए आमंत्रित किया गया, तब युधिष्ठिर की जुआ खेलने की कोई मंशा नहीं थी। उन्हें लगता था कि इससे भाईयों में मतभेद और बढ़ेगा, यहाँ तक उन्हें युद्ध होने की सम्भावना भी थी। किन्तु, उन्हें जुआ खेलने के लिए उकसाया गया। परिणामस्वरूप, वे उसमें फँसते चले गए और उन्होंने और अधिक जुआ खेलना आरम्भ कर दिया। अन्ततोगत्वा, जैसे-जैसे जुए का खेल आगे बढ़ा, वे जुए के प्रभाव में जकड़ लिए गए।
यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि युधिष्ठिर जैसा धर्मपरायण व्यक्ति जुए के प्रभाव में कैसे इतना फँस सकता है। हमें इस परिस्थिति को एक दूसरे दृष्टिकोण से देखना चाहिए। जुए का उन्माद इतना तीव्र हो सकता है कि युधिष्ठिर जैसा धर्मपरायण व्यक्ति भी उसमें किसी भी हद तक फँस सकता है और जुआ पूर्णतया उसे अपने वश में कर सकता है।
युधिष्ठिर वास्तव में सोच रहे थे, “मैंने बहुत कुछ खो दिया है। मैंने अपने शस्त्र, आभूषण, राज्य सब खो दिए हैं। अब किसी तरह, मुझे इन वस्तुओं को पुनः प्राप्त करना है। “वे यह आशा कर रहे थे कि अगले दाँव तक, उनका भाग्य पलट जाएगा और वे उन सब वस्तुओं को पुनः प्राप्त कर लेंगे। अतः, जब उसने अपना सब कुछ खो दिया, तो उसने नकुल और सहदेव को दाँव पर लगाया। इसपर, शकुनि ने उसे उकसाया और कहा, “लगता है कि तुम माद्री से ज्यादा कुंती के पुत्रों से प्रेम करते हो। अतः तुमने माद्री के पुत्रों को दाँव पर लगाया है, कुंती के पुत्रों को नहीं।” वास्तव में पाँचों पाण्डव एक थे। यद्यपि, वे सौतेले भाई थे किन्तु उनमें आपस में सगे भाईयों से भी अधिक घनिष्टता थी। इस आरोप से युधिष्ठिर क्रोधित हो गए। उन्होंने कहा, “तुम मूर्ख हो। हम पाँच पाण्डव एक हाथ की पाँच अंगुलियों के समान हैं। हम सब एक हैं। आपने हमारे बीच मनमुटाव पैदा करने की धृष्टता कैसे की?” शकुनि ने तुरंत युधिष्ठिर से क्षमा माँगी। उसने अपना चेहरा बदल लिया और कहा, “क्षमा करें, क्षमा करें। मैंने परिस्थितिवश आपको कुछ गलत कह दिया, कृपया मुझे क्षमा करें। आप हर तरह से मेरे श्रेष्ठ हैं। आइए जुआ खेलना जारी रखें।” शकुनि ने पश्चाताप का दिखावा किया किन्तु उसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया। तब युधिष्ठिर ने अर्जुन को दाँव पर लगा दिया और उसे खो दिया। फिर उन्होंने भीम को दाँव पर लगाया और उसे भी खो दिया। फिर उसने स्वयं को दाँव पर लगाया और स्वयं को भी खो दिया।
इस समय वे अपना सब कुछ खो चुके थे। अब, शकुनि ने सुझाव दिया, “आपके पास अभी भी एक और वस्तु दाँव पर लगाने के लिए है, और वह है द्रौपदी।” जब द्रौपदी का नाम आया तो पूरी सभा में हाहाकार मच गया। युधिष्ठिर स्वयं इस सुझाव को सुनकर हतप्रभ थे। तब उन्होंने सोचा कि अब द्रौपदी का कोई रक्षक नहीं बचा। उसके सारे पति दास बन चुके हैं और यदि मैं द्रौपदी को दाँव पर लगाऊँ, तो सम्भवतः जीत जाऊँ। यदि मैं जीत गया तो जो मैंने खोया है उसे वापस पा सकूँगा। तो कम से कम कुछ तो जीवन जी पाऐंगे, अन्यथा द्रौपदी का क्या जीवन होगा? ऐसा नहीं है कि युधिष्ठिर का तर्क उचित था किन्तु उस परिस्थिति में वे ऐसा सोच रहे थे। तब ऐसी मनोस्थिति में, उन्होंने द्रौपदी को दाँव पर लगाने का निर्णय किया।
अब यदि हम देखें, तो महत्वपूर्ण बात यह है कि जुए में स्वयं से पहले उन्होंने अपने भाइयों को दाँव पर लगाया। उसके बाद ही उन्होंने द्रौपदी को दाँव पर लगाया। इसका अर्थ यह है कि वे वास्तव में द्रौपदी को कहीं अधिक मूल्यवान मानते थे। ऐसा नहीं था कि उन्होंने यूँ ही द्रौपदी को दाँव पर लगा दिया था। सर्वप्रथम, युधिष्ठिर जुआ खेलने के लिए अपने वरिष्ठजनों के निर्देशों से बंधे हुए थे। उन्हें अन्यों द्वारा जुआ खेलने के लिए एक कुत्सित भावना के अंतर्गत उकसाया गया था। वे न सिर्फ जुए के उन्माद में फँसते चले गए अपितु वे अत्यंत निराश भी थे क्योंकि वे अपना सब कुछ खोना नहीं चाहते थे। इस अवस्था में उन्होंने द्रौपदी को भी दाँव पर लगा दिया।
आध्यात्मिक और भक्तिमय दृष्टिकोण से यदि इस घटना की विवेचना की जाए तो यह कहा जा सकता है कि घटनाक्रम इस प्रकार व्यवस्थित किया गया कि श्रीकृष्ण को ही अंततः द्रौपदी की रक्षा के लिए आना पड़ा। युधिष्ठिर के कार्यों को भगवान् द्वारा इस प्रकार व्यवस्थित किया गया कि वे प्रदर्शित कर सकें – “अंततोगत्वा, श्रीकृष्ण के अलावा हमारा और कोई रक्षक नहीं है”। द्रौपदी के पाँच अत्यंत वीर पति थे जिनके समान जगत में शायद ही और कोई अन्य वीर होगा। सम्भवतः कोई भी न हो। किन्तु फिर भी ऐसे पति उस विशेष समय पर असहाय बना दिए गए। द्रौपदी सहायता के लिए भी उनके पास नहीं जा सकती थी। वह श्रीकृष्ण की ओर मुड़ी और उन्होंने ही उसकी सहायता की।
संक्षेप में कहा जाए तो, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, युधिष्ठिर के कार्यों को भगवान द्वारा व्यवस्थित किया गया था ताकि वे इस सत्य को प्रदर्शित कर सकें कि श्रीकृष्ण के अलावा हमारा कोई रक्षक नहीं है। किन्तु, परिस्थितिजन्य दृष्टिकोण से, हम समझ सकते हैं कि युधिष्ठिर ने अपने वरिष्ठों के निर्देश के कारण, शकुनि के उकसावे में आकर, जुए के उन्माद में फँसकर और इस हताश आशा के कारण जुआ खेला कि सम्भवतः वे हो चुकी सम्पत्ति की क्षति को पूर्ववत कर सकते हैं। इसी विकट परिस्थिति एवं मानसिक अवस्था में वे द्रौपदी को भी जुए में दाँव पर लगा बैठे।
End of transcription.