How should we respond when sacred characters from our tradition are criticized?
For example, a politician-lawyer recently criticized Lord Rama as being a lousy husband for abandoning Sita. We also know that they wouldn’t dare to criticize characters of other religions like this? Is it our weakness due to which they are getting away with such criticism?
Answer Podcast
Answer Podcast Hindi
Transcription: Sri Amit Agrawal and Smt Nidhi Agrawal (Noida)
प्रश्न – जब हमारे धर्म के पवित्र चरित्रों की आलोचना की जाती है, तो हमें कैसे उत्तर देना चाहिए?
उत्तर – हाल ही में एक वकील ने भगवान राम को अनैतिक बताया क्योंकि उन्होंने सीता माता का त्याग किया था। हमें ऐसे लोगों की अशिष्टता पर बहुत क्रोध आता है। हम यह भी जानते हैं कि ऐसे लोग अन्य धर्म के किसी व्यक्ति, गुरु या भगवान की आलोचना करने की हिम्मत नहीं करते। तो क्या अपने धर्म के पवित्र चरित्रों की आलोचना सुनना हमारी कमजोरी है?
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।
आजकल लोग अपने धर्मों के प्रति कट्टर हो गए हैं, और इस कट्टरता का कारण है अन्यों और अपने धर्म के बीच के अंतर के प्रति असहिष्णुता। कुछ व्यक्ति ऐसे है जों हिंसा द्वारा अपने धर्म के प्रति की गई आलोचना को दबा देते हैं किन्तु यह समस्या का झूठा और बनावटी हल है। ऐसी प्रतिक्रिया अकसर ऐसे व्यक्तियों द्वारा की जाती है जो कट्टरतावादी होते हैं। वर्तमान समय में ऐसे कट्टरतावादी धर्मों को आदर नहीं मिलता। लोग खुले रूप में नहीं तो गुप्त रूप से ऐसे धर्मों की निंदा करते हैं। बुद्धिमान और सुसंस्कृत लोग ऐसे धर्मों से किनारा करने लगते हैं।
इसके विपरीत कृष्णभावनामृत एक ऐसी विचारधारा है जो अन्य धर्मों की विचारधाराओं का आदर करती है। इसकी विचारधारा में कट्टरतावाद के लिए बिल्कुल कोई स्थान नहीं है। यह न केवल एक विचारधारा है बल्कि एक व्यापक वैश्विक दृष्टिकोण है जो अन्य विचारधारओं को अलग-अलग स्तरों पर अपने अंदर समायोजित करती है। कृष्णभावनामृत के अनुसार अन्य धर्म भी लोगों की चेतना को निचले स्तर से उठाकर ऊपर की ओर ले जा सकते हैं, अतः अन्य धर्म भी लोगों के जीवन को सुखमय बनाने में अपना बहुमूल्य योगदान कर सकते हैं।
भगवान की निंदा सुनना हमारे सिद्धांतों के विरुद्ध है पर यदि कभी ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाए तब तीन विकल्प हैं –
(i) निंदा या आलोचना करने वाले की जिह्वा काट लें
(ii) आत्महत्या
(iii) अथवा वहाँ से चले जाऐं।
पहला विकल्प प्रतीकात्मक (symbolic) है। यहाँ जिह्वा काटने को अक्षरशः नहीं लेना है। यहाँ जिह्वा काटने का अर्थ है अपने तर्कों द्वारा निंदा करने वाले को अनुत्तर करना। आलोचना हमें प्रेरित करती है कि हम अपने शास्त्रों की गहराई में जाएं और उन्हें बेहतर समझें। कलियुग में आलोचना स्वाभाविक है। आलोचना होने पर एक विवाद का वातावरण बनता है और ऐसे में सामान्य जन जिज्ञासु हो जाते हैं। अतः हमें आलोचना को एक अवसर के रूप में देखना चाहिए। अपनी संस्कृति को गहराई से समझकर बुद्धिमत्ता एवं संवेदनशीलता के साथ उसे लोगों के साथ बाँटें।
दूसरे विकल्प का उदाहरण देवी सती हैं। इन्होनें अपने पति भगवान शिव की आलोचना सुनकर आत्महत्या कर ली थी जिसके कारण काफी उत्पात मचा था। किन्तु यह विकल्प एक अत्यंत कड़ा कदम है जिसका परामर्श नहीं दिया जा सकता।
तीसरा विकल्प यह है कि हमारे पास यदि तर्क करने के लिए पर्याप्त धैर्य, ज्ञान और बुद्धि नहीं है तो हमें उस स्थान को छोड़कर चले जाना चाहिए जहाँ इस प्रकार निंदा हो रही हो।
जब आक्रामकता होती है तो उसका परिणाम विनाशकारी होता है। उदाहरण के लिए दक्ष के यज्ञ के समय जब शिव की निंदा की गई थी तो शिव भक्तों के लिए अपने गुरु की निंदा सुनना गुरु अपराध था। उनका श्राप देना स्वाभाविक था, परंतु उसका परिणाम भी विनाशकारी हुआ।
जब राधानाथ महाराज से यह प्रश्न पूछा गया कि दक्ष के यज्ञ का परिणाम विनाशकारी था तो इसका उत्तरदायी कौन था? किसने गलत किया? और क्या गलत किया? उत्तर में महाराज ने कहा कि दक्ष प्रजापति का व्यवहार एकदम अनैतिक था। सिद्धांत तो यह है कि हमें निंदा नहीं सुननी चाहिए। पर वास्तव में हमारी प्रतिक्रिया ऐसी होनी चाहिए जिससे परिस्थितियां सुधरें हो न कि बिगड़ें।
निंदा के विरोध के जो तीन नियम हैं वे पत्थर की लकीर नहीं है। जब गलत विचारों का प्रचार होता है तो उनका विरोध होना चाहिए। यदि ऐसे विचारों का विरोध न हो तो इससे समाज में भ्रांतियाँ बढ़ती हैं। कई बार सही उत्तर मिलने पर आलोचना करने वाला व्यक्ति स्वयं को सुधार भी सकता है।
कई बार जब हम आलोचना का सही ढंग से प्रतिकार न कर पाऐं तो हमें ऐसे में वहाँ से चले जाना चाहिए। श्रील प्रभुपाद का उदाहरण यहाँ दिया जा सकता है। किसी ईसाई प्रोफेसर ने एक बार कर्म के र्सिद्धांत की आलोचना करते हुए कहा कि इस बात का कौन साक्षी है कि किसने क्या कर्म किए। प्रभुपादजी इसका उत्तर जानते थे (कि परमात्मा सभी कर्मों के साक्षी हैं) परन्तु प्रभुपादजी ने इसका उत्तर नहीं दिया। तो क्या प्रभुपाद जी ने वैदिक धर्म का पालन नही किया?
प्रभुपाद जी एक विद्यार्थी के रूप में वहाँ बैठे थे। ऐसी परिस्थिति में बोलना शिष्टाचार का उल्लंघन होता। इसलिए वे शांत बैठे रहे और सुनते रहे। इसके बाद उन्होंने अपने द्वारा लिखित पुस्तकों द्वारा प्रोफ़ेसर की बात का विरोध किया।
सारांश में, एक भक्त होने के नाते हमें आलोचना होने पर क्रोध आएगा और दुख भी होगा। पर हमें हिंसक नहीं होना चाहिए बल्कि ऐसी बातों को अवसर मानकर अपनी संस्कृति को और गहराई से जानना चाहिए और अन्यों के साथ बाँटना चाहिए जिनकी जिज्ञासा ऐसी परिस्थितियों में बढ़ जाती है।
End of transcription.