If people treat us based on their past negative impressions about us even after we have improved, what can we do – Hindi?
Anwser Podcast
लिप्यंतरण तथा संपादन: अम्बुज गुप्ता तथा केशवगोपाल दास
प्रश्न- हरेक की अपनी-अपनी बोलने की पद्धति होती है और उस बोलने की पद्धति के कारण कुछ लोग हमारे बारे में एक राय बना लेते हैं कि यह व्यक्ति ऐसा है। बाद में हमारे बदलने के बावजूद लोग पहली बनी धारणाओं के अनुसार ही हमसे व्यवहार करते रहते हैं। ऐसे में हम क्या करें?
उत्तर (संक्षिप्त)-
- हमें अपने सम्बंधों को सिर्फ अन्य व्यक्ति तक ही सीमित करके नहीं देखना चाहिए, किन्तु हर सम्बंध को भगवान् के साथ जोड़ कर देखना चाहिए।
- जब हम किसी व्यक्ति के साथ व्यवहार कर रहे हैं तो हमें ऐसा नहीं सोचना है कि हम केवल उस व्यक्ति को प्रसन्न करने के लिए ही कार्य कर रहे हैं। हम भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए भी कर रहे हैं।
- भले ही वो व्यक्ति हमारे साथ उचित व्यवहार नहीं भी करे, हमें इस तरह से कार्य करना है जिससे भगवान कृष्ण हम से प्रसन्न हों।
उत्तर (विस्तृत)- सम्बन्धों का विज्ञान जटील होता है, इसलिए यदि हम सम्बन्धों को हमेशा सिर्फ दूसरे व्यक्ति के आधार पर और उस व्यक्ति के साथ व्यवहार के आधार पर ही देखेंगे तो हमें सही मार्ग पर आने का मौका अथवा प्रोत्साहन कभी नहीं मिलेगा। यदि ऐसा हो कि हम तो अच्छा बर्ताव कर रहे हैं, पर दूसरा व्यक्ति फिर भी हमारे साथ अच्छा बर्ताव नहीं कर रहा है, तो हमें यह समझना चाहिए कि हमारा जो सम्बन्ध है वह सिर्फ उस व्यक्ति के साथ ही नहीं है किन्तु भगवान से भी है।
पिछले साल मैं मेलबर्न में था, वहाँ पर एक लेक्चर के दौरान एक भक्त ने सवाल पूछा कि एक भक्त हैं जो मुझे बताते हैं कि मैं उनको पसन्द नहीं हूँ। मैं कुछ भी करूँ तो भी वे मुझे पसन्द नहीं करने वाले हैं। वे मुझसे नाखुश ही रहने वाले हैं। तो ऐसी परिस्तिथि में मैं क्या करूँ। यदि वे भक्त भी यहाँ पर हैं तो आप उन्हें क्या बताना चाहेंगे।
मैंने उत्तर दिया कि वास्तव में हर भक्त के अन्य व्यक्ति के साथ संबंध में हमेशा एक तीसरा व्यक्ति भी शामिल होता है और वह व्यक्ति हैं – श्रीकृष्ण। दूसरे शब्दों में यदि हमारा किसी भी व्यक्ति से सम्बन्ध हो तो हमारा सम्बन्ध सिर्फ उस व्यक्ति से ही नहीं है, हमारा सम्बन्ध श्रीकृष्ण से भी है। मतलब यह कि यदि हम उस व्यक्ति के साथ व्यवहार कर रहे हैं तो हम ऐसा केवल उस व्यक्ति को प्रसन्न करने के लिए ही नहीं कर रहे हैं। हम भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए भी कर रहे हैं। तो भले ही वो व्यक्ति उचित पद्धति से कार्य नहीं करे, हमें इस तरह से कार्य करना है जिससे भगवान कृष्ण हम से प्रसन्न हों।
यहाँ एक उदाहरण दिया जा सकता है। मान लीजिए कोई कपड़े की दुकान है। उसमें कोई कर्मचारी है जो ग्राहकों को कपड़े दिखाता है। उस दुकान के कुछ ऐसे ग्राहक हैं जो जब दुकान पर आते हैं तो आपकी सारी दुकान के कपड़े देख डालते हैं। ये भी दिखाओ, वो भी दिखाओ। सब कपड़े देखते हैं पर बाद में एक भी कपड़ा नहीं खरीदते। इस प्रकार के जो ग्राहक होते हैं उन्हें दुकान के कर्मचारी भी जान जाते हैं कि ये व्यक्ति कुछ खरीदता नहीं है, परेशान अधिक करता है। नतीजा होता है कि कोई भी कर्मचारी उस व्यक्ति के पास नहीं जाता है। तो मान लीजिए ऐसा ही कोई ग्राहक आ गया है और ‘ये अच्छा नहीं है, वो अच्छा नहीं है, ये दिखाओ, वो दिखाओ’, ऐसा करके पूरी दुकान छान रहा है। ऐसे में जो कर्मचारी उस ग्राहक को कपड़े दिखा रहा है वह अपना नियंत्रण खो सकता है , उसे क्रोध आ सकता है। मैं इतना दिखा रहा हूँ पर ये कुछ ले ही नहीं रहा। किन्तु वह कर्मचारी जानता है की मेरी जो तनख्वाह है वह इस ग्राहक से नहीं आती। मेरी तनख्वाह तो दुकान का मालिक देता है। मेरा मालिक कैश काउन्टर पर बैठा देख रहा है कि मैं इस ग्राहक से कैसा बर्ताव कर रहा हूँ। मेरा मालिक यह भी जानता है कि ये ग्राहक बड़ा कठिन है। इसको सम्भालना आसान काम नही है। तो ऐसा हो सकता है कि जो कर्मचारी है वह सौ कपड़े दिखाए और एक भी कपड़ा न बेच पाए। पर अगर वो बड़ी नम्रता से, सुशीलता से बर्ताव करता है तो उसका मालिक उससे प्रसन्न होगा कि ऐसे ग्राहक के साथ भी तुमने अच्छा बर्ताव किया। वह एक भी कपड़ा नहीं बेचेगा पर उसका मालिक उसकी तरक्की कर देगा।
कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, वे हमको समझते ही नहीं, समझने का प्रयास भी नहीं करते। तुम ऐसे हो मतलब तुम ऐसे ही हो, चाहे कुछ भी हो जाए। उनका हमारे बारे में जो मत है उस बदलने को तैयार ही नहीं। अगर हम सिर्फ ऐसा सोचेंगे कि यह व्यक्ति मेरे बारे में ऐसा क्यों सोच रहा है, मैं तो ऐसा नहीं हूँ तो हम क्या बदलेंगे, हम बदलने का प्रयास भी छोड़ सकते हैं। पर यदि हम सोचेंगे कि मैं अच्छा बनने का प्रयास करूँ, जो गलत किया है उसको सुधारने का प्रयास करूँ। मैं सिर्फ इस व्यक्ति की प्रसन्नता के लिए नहीं कर रहा हूँ, मैं भगवान कृष्ण की प्रसन्नता के लिए भी कर रहा हूँ। कृष्ण देख रहे हैं। तो अगर कृष्ण की प्रसन्नता के लिए कार्य करेंगे तो भले ही वो व्यक्ति समझे न समझे कृष्ण अवश्य समझेंगे और हम आध्यात्मिक प्रगति करेंगे।
ऐसा नहीं है कि दूसरा व्यक्ति बिल्कुल नहीं देखता है कि हम परिवर्तित हो रहे हैं। समय के साथ परिस्तिथि बदल भी सकती है। शायद वह व्यक्ति भी समझने लगे कि वास्तव में हम वैसे नहीं हैं। पर हम स्वयं के परिवर्तन के लिए जो प्रयास कर रहे हैं वो हम सिर्फ दूसरे व्यक्ति के लिए नहीं कर रहे हैं, हम भगवान के लिए कर रहे हैं। दूसरे व्यक्ति से यदि हमें प्रेरणा मिलती है तो अच्छा है, पर प्रेरणा नहीं भी मिलती है तो हमें देखना चाहिए कि हमारे समुदाए में क्या किसी अन्य से प्रेरणा मिल सकती है। जीवन में हमें कुछ लोग मिलते हैं जो हमें प्रेरणा देते हैं, प्रोत्साहन देते हैं, कुछ लोग जरा भी प्रोत्साहन नहीं देते, और कुछ लोग जो प्रोत्साहन पास होता है उसे भी समाप्त कर देते हैं। हमें जहाँ से प्रोत्साहन मिल रहा है उनका संग ज्यादा लेना है तथा प्रोत्साहित बने रहना है। हमें देखना है कि मैं जो कर रहा हूँ वो भगवान कृष्ण की सन्तुष्टि के लिए कर रहा हूँ, ऐसा करने से हम सशक्त बने रहेंगे और प्रगति करेंगे।