If we are working wholeheartedly in our material life but can’t work similarly in our spiritual life what can we do–Hindi
लिप्यंतरण तथा संपादन: अम्बुज गुप्ता तथा केशवगोपाल दास
प्रश्न- यदि हम अपनी क्षमता के उनुसार भगवान की सेवा नहीं कर पा रहे हैं, किन्तु पूरी क्षमता से भौतिक जगत में लगे हुए हैं और वहाँ पर खतरा लेकर प्रगति करने का प्रयास कर रहे हैं, तो इससे हम कैसे निकलें ?
उत्तर (संक्षिप्त) –
पहली बात तो यहाँ यह समझना आवश्यक है कि हम अपने भौतिक कार्यों को भी आध्यात्मिक बना सकते हैं, यदि उन्हें हम सेवा की भावना से करें।
कई बार अपने जीवन में हम अनेक भौतिक जिम्मेदारियों से घिरे होते हैं और हमारे पास आध्यात्मिक कार्यों के लिए इतना समय नहीं होता। ऐसे में हमें अपनी जिम्मेदारियों से भागना नहीं है किन्तु उन्हें पूरे उत्साह के साथ निर्वाह करना है किन्तु साथ ही साथ आध्यात्मिक कार्यों को भी जितना सम्भव हो सके समय देना है।
श्रील प्रभुपाद भी अपने गृहस्थ जीवन में हर समय आध्यात्मिक गतिविधियों से जुड़े नहीं थे, वे व्यापार के माध्यम से बहुत धन कमाना चाहते थे ताकि वे पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ अपने गुरु के आंदोलन में भी योगदान कर सकें।
उत्तर (विस्तृत)– भगवद्गीता के अनुसार – स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य, सिद्धिं विन्दति मानवः (भ.गी. 18.46) – हम अपने कर्म के द्वारा भी भगवान की पूजा कर सकते हैं। भगवान यह नहीं कहते कि – ‘कर्म ही पूजा है’। भगवान कहते हैं – हम ‘कर्म के द्वारा पूजा’ कर सकते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि आमतौर पर हम अपने भौतिक और आध्यात्मिक जीवन को अलग-अलग देखते हैं। हम आध्यात्मिक जीवन के लिए अलग समय रखते हैं। जप के लिए, सत्संग के लिए अलग समय रखते हैं। इस प्रकार हम अपने आध्यात्मिक जीवन को और भौतिक जीवन को अलग-अलग देखते हैं। समय देने के दृष्टिकोण से हम जीवन को इस प्रकार विभाजित कर सकते हैं। किन्तु इस प्रकार विभाजन करने के बाद यदि हम अपने कार्य के बारे में इस प्रकार सोचें कि ये तो भौतिक कार्य है। तो इस प्रकार सोचने का प्रभाव यह होगा कि हम हतोत्साहित हो जाएँगे।
हमें समझना चाहिए कि वास्तव में भौतिक और आध्यात्मिक का अर्थ क्या है। ये दोनों भावनाऐं हैं। मैं सेवा भावना का अनुशीलन अपने भौतिक कार्यों में भी कर सकता हूँ। हर परिस्थिति को मैं भगवान की एक योजना के रूप में देख सकता हूँ और उस परिस्तिथि में अपनी नौकरी कर सकता हूँ और उस क्षेत्र में अपनी क्षमता दिखा सकता हूँ। ऐसा नहीं कि मुझे हर कार्य को करते समय यह सोचना है कि अरे यह तो भौतिक कार्य है, मैं इसे क्यों करुँ। इसके विपरीत हमें यह सोचना है कि मैं इसमें सेवा का भाव कैसे बढ़ा सकता हूँ। ऐसा करने का परिणाम यह होगा कि हम जो भी भौतिक कार्य करेंगे उसे सकारात्मक दृष्टिकोण से करेंगे।
यहाँ सकारात्मक दृष्टिकोण का अर्थ है कि जैसे कई बार हमारी भौतिक जीवन में जिम्मेदारियाँ होती हैं, महत्वकांक्षाऐं होती हैं, तो कुछ लोग अपने आध्यात्मिक जीवन में इतनी रुचि प्राप्त कर लेते हैं कि वे अपनी भौतिक महत्वकांक्षाओं को आध्यात्मिक महत्वकांक्षाओं में परिवर्तित कर लेते हैं। कुछ ऐसी महत्वकांक्षाऐं हो सकती हैं जिन्हें कोई व्यक्ति तुरंत नहीं छोड़ सकता है, तो व्यक्ति ऐसी महत्वकांक्षाओं को पूरी करने के बाद भक्ति में लग सकता है। ऐसा भी किया जा सकता है।
कहने का तात्पर्य है कि हमें जो भी करना है उसे पूरे उत्साह से, पूरे समर्पण से करना है। यदि हमारी परिवार के प्रति कुछ जिम्मेदारी है, या नौकरी के प्रति कोई जिम्मेदारी है, तो अगर हम उसे अच्छी तरह से नहीं करते हैं तो इसका परिणाम यह होता कि अकसर वही काम हमको दोबारा करना पड़ता है। इसलिए जब भी हम किसी कार्य की जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं तो हमें इतना जिम्मेदार जरूर होना चाहिए कि हम भक्ति के लिए पर्याप्त समय निकाल सकें। ऐसा नहीं कि मैं दिनभर, चौबीस घण्टे, हफ्ते भर, महीने भर, साल भर सिर्फ भौतिक कार्य करुँगा और उन्हें ही भक्ति कहूँगा। हमें भक्ति के कार्यों के लिए अलग से समय देना चाहिए और उसके लिए अलग समय रखना है। उसके बाद हमें यह सोचना है कि मैं अपना सारा जीवन भगवान की सेवा में कैसे लगा सकता हूँ। अपने भौतिक कार्य
को भी हम इस विचारधारा के अंतर्गत ला सकते हैं कि कैसे मैं इस कार्य के द्वारा भगवान की सेवा कर सकता हूँ। इस तरह हम धीरे-धीरे अपने भौतिक कार्यों के द्वारा भी आध्यात्मिक प्रगति कर सकते हैं।
जहाँ तक क्षमता का सवाल है तो हमें यह समझना चाहिए कि हमारे जीवन में अलग-अलग अवस्थाऐं होती हैं। हम अलग-अलग परिस्तिथियों से गुजरते हैं। कभी-कभी जब हम सड़क पर होते हैं और ट्रैफिक बहुत ज्यादा होता है, तो हम चाहें भी तो ज्यादा तेज नहीं जा सकते हैं, और जब रास्ता साफ हो जाता है तो हम तेजी से जा सकते हैं। तो वैसे ही भगवान के पास जाने के रास्ते में कभी- कभी भौतिक जिम्मेदारियों का ट्रैफिक बहुत ज्यादा हो सकता है। ऐसे में हम बाहरी रूप से आध्यात्मिक कार्य इतने नहीं कर पाएँगे। उसका मतलब यह नहीं कि हम आध्यात्मिक जीवन छोड़ दें। हम फिर भी आगे बढ़ सकते हैं पर धीरे-धीरे। पर बाद में जब हमारा रास्ता साफ हो जाएगा, तो हमें धीरे-धीरे नहीं जाना है, तब हमें तेजी से जाना है। हम दिशा एक रख सकते हैं और अलग-अलग समय पर रफ्तार अलग-अलग हो सकती है। कभी-कभी भौतिक जिम्मेदारियों पर ज्यादा समय देना पड़ता है। इसका मतलब यह नहीं है कि
हम आध्यात्मिक नहीं हैं।
जब श्रील प्रभुपादजी, महाभागवत परम भक्त, इलाहाबाद में थे, वे अपनी कम्पनी प्रयाग फार्मास्यूटिकल चलाते थे। उनकी जीवनी ‘लीलामृत’ में एक वर्णन आता है जिसमें उनके एक पड़ोसी ने एक इंटरव्यू में बताया कि अभय चरणजी (श्रील प्रभुपाद का गृहस्थ जीवन में नाम) बड़े धार्मिक पुरुष थे। उस समय उनको एक ही चिन्ता रहती थी कि मैं और पैसे कैसे कमाऊँ। क्यों? उस समय वे गृहस्थ आश्रम में थे, उन पर बहुत जिम्मेदारियाँ थी और उन्हें यह भी इच्छा थी कि यदि और धन कमाएँगे तो अपने गुरु के आन्दोलन में वे और अधिक योगदान दे सकते हैं। ऐसा नहीं है कि प्रभुपादजी हमेशा जीवनभर, चौबीस घण्टे, बाहरी रूप से आध्यात्मिक कार्य कर पाए। उनकी भी परिस्तिथि ऐसी आ गई थी कि उनको अपनी भौतिक जिम्मेदारियों के लिए व्यापार करना पड़ रहा था। यदि आप प्रभुपाद जी का जीवन देखें तो उन्होंने धन कमाने के लिए बहुत प्रयास किया। एक बार उन्होंने कलकत्ता में अपनी दुकान शुरु की।
फिर वे बम्बई गए, फिर इलाहाबाद गए।
इस प्रकार हमें भौतिक चीजों को ही सब कुछ नहीं मानना है और आध्यात्मिक को छोड़ना नहीं है। किन्तु जब हम भौतिक कार्य कर रहे हैं, तो हर बार उन्हें भौतिक सोचकर उस कार्य की उपेक्षा भी नहीं करना है। उसमें भी पूरे उत्साह से कार्य करना है और देखना है ये भी मैं भगवान की सेवा के लिए कर रहा हूँ। ऐसा करने से हम उत्साहित रह सकते हैं और आध्यात्मिक जीवन के लिए समय निकाल कर उसमें भी प्रगति कर सकते हैं।