Is it really possible to be happy while you yourself see so much suffering in yours like as well as everywhere around?
From Mahadeva:
I am just looking for a single honest soul that can say that he has got this joy and is unaffected by whatsoever happening around him ? What kind of attitude is expected – to be oblivious.
Answer Podcast
Answer Podcast Hindi
Transcription by: Sriman Amit and Srimati Nidhi Agrawal (Noida)
प्रश्न – अपने और दूसरों के जीवन के दुखों को देखकर भी क्या आनंदपूर्वक भक्ति की जा सकती है?
उत्तर – यदि भक्त इस जगत के दुखों को अनदेखा करते तो भौतिक जगत से उन्हें कोई लेना देना ही नहीं होता अपितु वे भौतिक संसार से संबंध समाप्त करके वृंदावन या मथुरा में जाकर बसते और केवल अपनी मुक्ति के बारे में सोचते। ऐसा अवसर श्रील प्रभुपाद जी के जीवन में भी आया था लेकिन उन्होने सत्तर वर्ष की अवस्था में भी भक्ति की राजधनी वृंदावन को त्यागकर अधोगति की राजधानी न्यूयार्क को चुना, क्योंकि उनमें दया और करुणा थी। अन्यों के दुख को देखकर उन्हें दुख होता था और वे उन्हें दुख की परिस्थिति से निकालना चाहते थे। अन्यों के दुख से अप्रभावित रहना एक उन्नत भक्त के लक्षण नहीं है। अन्यों के दुख को अनदेखा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
अन्यों की सहायता करने की इच्छा प्रशंसनीय है, किन्तु यह सहायता कैसे करनी है, उसका ज्ञान और क्षमता न होने पर इसका परिणाम विपरीत भी हो सकता है। उदाहरण के लिए जैसे कोई व्यक्ति डूब रहा होता है तो वह डूबने वाले की सहायता तब तक नहीं कर सकता जब वह स्वयं तैरना न जानता हो। यदि सहायता करने वाला स्वयं बँधा हो तो वह किसी अन्य बँधे हुए व्यक्ति को बंधनमुक्त कैसे करा सकता है। यदि सहायता करने वाला स्वयं रोगी हो तो वह किसी अन्य रोगी की सहायता नहीं कर सकता। ये तीनों उदाहरण दिखाते हैं कि यदि हमें सही मायनों में अन्यों की सहायता करनी है तो अपने अंदर आध्यात्मिक विकास और विश्वास होना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि मैं रोग से संक्रमित हूँ और उसका उपचार स्वयं नहीं ले रहा हूँ पर अन्यों पर उसे लागू कर रहा हूँ तो मैं स्वयं और सहायता लेने वाले, दोनों को रोग से संक्रमित कर सकता हूँ।
इस भौतिक जगत के दुख अधिकतर स्वप्रेरित हैं। इसका उदाहरण हैं नशीले पदार्थों एंव इन्द्रिय सुखों का व्यसन। इन व्यसनों से उत्पन्न दुख तो हमें स्पष्ट दिखाई देते हैं। वास्तव में हमारे समस्त दुखों का कारण हमारे इस जन्म के या फिर पूर्व जन्म के कर्म होते हैं।
इस भौतिक जगत में सभी जीव दुखी हैं। महारानी कुंती ने श्रीमद्भागवतम् में जीव के दुखी रहने के तीन कारण बताए हैं – अविद्या काम कर्मभिः (भागवतम् 1.8.35)। अविद्या के कारण जीव इस ज्ञान से अनभिज्ञ रहता है कि वास्तविक सुख की प्राप्ति कहाँ से होती है। इससे काम उत्पन्न होता है और भौतिक सुख भोगने की कामना के फलस्वरूप हम जो कर्म करते है उससे कर्मबंधन में फँस जाते हैं और फिर भौतिक जगत में पीड़ा भोगते रहते हैं।
महारानी कुंती समस्त दुखों और पीड़ाओं से बचने का उपाय बताती हैं – श्रवणस्मरणार्हाणि – श्रीकृष्ण के बारे में श्रवण और स्मरण करें। इससे हमें उत्तम रस का अनुभव होगा, हमारा अन्तःकरण शुद्ध होगा तथा हमें भवबंधन से मुक्ति मिलेगी। अध्यात्म के सभी मार्ग श्रीकृष्ण की भक्ति पर जाकर संपन्न होते हैं। भक्ति में हम अपनी साधाना और सेवा साथ-साथ कर सकते हैं। अधिकतर सेवा कृष्णभावना के प्रचार पर आधारित है। साधना द्वारा हमें उत्तम रस की अनुभुति होगी जिसे हम श्रीकृष्ण के संदेश का प्रचार करके हम अन्यों के साथ बाँट सकते हैं। श्रीकृष्ण की भक्ति एक औषधि की भाँति है। कृष्णभक्त अपने अनुभव का प्रचार करके अन्यों के दुख को दूर कर सकते हैं। यदि किसी ने भक्ति का स्वंय अनुभव नहीं किया है, तो वह अन्यों को इसका अनुभव कैसे करा सकता है?
अन्यों के दुखों को दूर करने के लिये पहले स्वयं कृष्णभक्ति के आनंद का अनुभव करना आवश्यक है। जब हम किसी कृष्णभक्त से जुड़ जाते है तब उसके माध्यम से हम श्रीकृष्ण से जुड़ जाते हैं। इससे हम अपने जीवन में एक ऐसे हाथ का अनुभव करते हैं जो हमें भवसागर से खींचकर बाहर निकाल रहा हो। जब कोई हमारा एक हाथ पकड़कर हमें बाहर खींच रहा हो तब हम अपना दूसरा हाथ अन्यों की ओर बढ़ाकर उन्हें भी भवसागर से बाहर निकाल सकते हैं। जब हम किसी उपचार का प्रयोग करके ठीक हो जाऐं या हो रहे हों तभी हम अन्यों को उस उपचार के बारे में बताकर उसकी सहायता कर सकते हैं। जैसे एक व्यक्ति स्वयं बंधनमुक्त हो जाए तभी वह अन्यों को बंधनमुक्त होने में सहायता कर सकता है।
सारांश में यह प्रश्न ही नहीं उठता की हम अन्यों के दुख को अनदेखा करें। लेकिन यदि उस पीड़ा के बारे में हमें कोई ज्ञान नहीं हो तो हम उसका उपचार भी नहीं कर सकते हैं। एक भक्त होने के नाते हमें स्वंय तो भक्ति के मार्ग का अनुसरण करके आनंद का अनुभव करना चाहिए लेकिन साथ ही साथ उस उपचार का प्रचार करके अन्यों की पीड़ा को भी दूर करना चाहिए।
End of transcription.