What is Karma? Is kartavya and karma same? As a student what are my karma and kartavya? – Hindi
Transcription by: Nirmala Shorewala (Kaithal)
प्रश्न – कर्म क्या है? क्या कर्म और कर्तव्य समान हैं? एक छात्र होने के नाते मेरा कर्तव्य क्या है?
उत्तर – “कर्म” शब्द के चार अर्थ हो सकते हैं।
पहला, हम जो भी कार्य करते हैं उसे कर्म कहते हैं। कोई भी ऐसा कार्य जो बीज उत्पन्न करता है, जिसका फल हमें भुगतना होता है, वह कर्म कहलाता है।
दूसरा, “कर्म” का एक अन्य अर्थ “कर्मफल” भी होता है। यह कर्मफल हमें अपने किसी पूर्व में किए कार्य की प्रतिक्रिया के रूप में प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ, जैसे कई बार लोग कहते हैं – “मैं अपने कर्म का फल भुगत रहा हूँ।“
तीसरा, कई बार हम “कर्म के सिद्धांत” को भी मात्र “कर्म” कह देते हैं।
चौथा, शास्त्र के अनुसार किए गए “कर्तव्य कर्म” को भी “कर्म” (अथवा सत्कर्म) कह दिया जाता है। “कर्म” का यह अर्थ पहली श्रेणी के अर्थ से ही सम्बंधित है। इसके अंतर्गत सत्कार्य अथवा नैतिक कार्य आते हैं जो शास्त्रसम्मत होते हैं। इन कार्यों का फल अच्छा होता है। इसका विपरीत शब्द है “विकर्म” जिसका अर्थ है “बुरे कार्य” जिनका फल बुरा होता है। “कर्म” और “विकर्म” के अतिरिक्त एक अन्य मिलता जुलता शब्द है “अकर्म” जिसका अर्थ होता है ऐसे कर्म जिनकी कोई प्रतिक्रया नहीं होती। इसके अंतर्गत दैवीय अथवा आध्यात्मिक कार्य आते हैं।
कर्तव्य और कर्म समान हो सकते हैं, यदि “कर्म” शब्द का चौथा अर्थ लिया जाए। हमें अपने कर्तव्यों का ज्ञान शास्त्रों से प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त, यदि हम कोई कार्य करते हैं और हमारी अंतरात्मा संतुष्ट हो तो ऐसा कार्य भी कर्तव्य की श्रेणी में कहा जा सकता है।
छात्र होने के नाते हमारे कर्तव्य क्या हैं यह समझने के लिए हमें पहले यह समझना होगा कि हमारे जीवन के दो पक्ष होते हैं – (i) भौतिक (ii) आध्यात्मिक।
हम एक आध्यात्मिक जीव हैं जो भौतिक प्रकृति में एक स्थूल शरीर में निवास कर रहे हैं। चूँकि हमारे जीवन के दो पक्ष हैं इसलिए हमारे कर्तव्य भी दो अलग-अलग हैं।
भौतिक दृष्टि से एक छात्र होने के कारण हमारा कर्तव्य यह होगा कि हम मन लगाकर पढ़ाई करें, एक अच्छे व्यवसाय में लगें, और अपनी भविष्य की जिम्मेदारियों को ठीक से निभाऐं। इसे नैमित्तिक स्वधर्म भी कहा जाता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से हम भगवान श्रीकृष्ण के अंश हैं अर्थात हम उनके सेवक हैं। यह हमारा नित्य अथवा शाश्वत स्वधर्म है। एक छात्र होने के नाते हमारा कर्तव्य श्रीकृष्ण की सेवा करना भी है। जैसे भक्तों का संग, शास्त्रों का अध्ययन, भगवन्नाम जप, भगवान को भोग लगाकर भोजन करना।
हमें अपने भौतिक और आध्यात्मिक कर्तव्यों में एक संतुलन बनाकर रखना चाहिए। इस संतुलन को कैसे बनाना है यह हम भक्तों के संग से सीख सकते हैं।
End of transcription.