When we see something wrong happening, should we humbly tolerate or stand up for justice?
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Transcription in Hindi
प्रश्न: जब हम कुछ गलत होता देखते हैं तो क्या हमें विनम्रतापूर्वक सहन करना चाहिए या न्याय के लिए लड़ना चाहिए?
उत्तर: सामान्यतः हमारे जीवन में कोई भी निर्णय तीन बातों पर निर्भर करता है – पद, प्रकृति और परिस्थिति। अर्थात, हमें लड़ना चाहिए या नहीं यह इन तीनों बातों पर निर्भर करेगा (i) परिस्थिति में हमारी भूमिका क्या है (ii) हमारी प्रकृति अथवा हमारा स्वभाव कैसा है, और (iii) वह परिस्थिति क्या है।
आइए इन तीनों बातों पर एक-एक करके चर्चा करते हैं।
(i) परिस्थिति में हमारी भूमिका क्या है: कई बार फिल्मों में हम देखते हैं कि समाज में उपजी किसी बुराई से लड़ने के लिए समाज का एक व्यक्ति हथियार उठा लेता है और गलत काम करने वालों को न्याय करने के नाम पर मार देता है। किन्तु यह दुनिया ऐसे नहीं चल सकती। किसी विकसित संवेदनशील समाज में फैले अन्याय को ठीक करना ऐसे लोगों द्वारा होना चाहिए जिनके पास ऐसा करने का अधिकार हो, उदाहरणार्थ – सरकार अथवा पुलिस। यदि कोई व्यक्ति उपद्रव फैला रहा है, तो सामान्य नागरिक ऐसे ही किसी उपद्रवी को गोली नहीं मार सकता। हमें ऐसी घटनाओं की सूचना पुलिस को देनी चाहिए। यदि कोई उपद्रवी हमें मारने का प्रयास कर रहा हो और हम अपना बचाव करते हुए उसे मार देते हैं, तो यह एक पूर्णतया अलग स्थिति है।
सामान्यतः, व्यक्तिगत स्तर पर, सहन करना और क्षमा करना ही सर्वोत्तम है। भक्तों के समुदायों सहित इस जगत में हम बहुत कुछ गलत होता देखते रहते हैं, और यदि हर कोई हर किसी को उचित-अनुचित का पाठ पढ़ाना आरम्भ कर दे, तो इससे चारों ओर नकारात्मकता, क्रोध और असुरक्षा की भावना ही फैलेगी। कुल मिलाकर, हमें सम्मान की और एक दूसरे के दोषों को अनदेखा करने की संस्कृति को बढावा देना चाहिए। गीता १६.२ में, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपैशुनम् (दोषदर्शन अथवा छिद्रान्वेषण में अरुचि) दैवी स्वभाव वालों की विशेषता है।
किन्तु, यदि कोई गंभीर रूप से गलत कार्य कर रहा है, जैसे धन की हेराफेरी, तो अधिकारियों को सूचित करना सबसे उचित निर्णय होगा। यदि हम ही उस परिस्थिति में अधिकारी के पद पर हैं, तो हमें उचित कार्यवाही करनी चाहिए। यहाँ हमें सहनशीलता या अनदेखी नहीं करनी चाहिए। साथ ही, हमें यह समझने की आवश्यकता है कि किसी भी सुधार को क्रियान्वित करने के लिए आपस में स्नेह और विश्वास का सम्बन्ध होना चाहिए। कोई भी कार्यवाही इस प्रकार करना चाहिए कि दूसरा व्यक्ति अपमानित न अनुभव करे। हमें उनके सम्मान का ध्यान रखना चाहिए ताकि वे समुदाय एवं भक्ति में बने रहें।
हमें यह ध्यान रखना होगा कि आलोचना करने का अधिकार ऐसे ही नहीं मिलता, उसे अर्जित किया जाता है। यह अधिकार बहुत प्रयास के बाद ही प्राप्त होता है किन्तु मात्र छोटी सी भूल से खो दिया जाता है। कई बार समस्याएँ जब पैदा होती हैं जब हम यह मान बैठते हैं कि हमें वास्तव में आलोचना करने का अधिकार है, भले ही हम वह आलोचना रचनात्मक दृष्टिकोण से ही क्यों न कर रहे हों।
यदि कहीं अन्याय हो रहा है और हम कार्यवाही करने की शक्ति और अधिकार होने के बाद भी उसे अनदेखा कर देते हैं, तो यह कर्तव्य की अवहेलना होगी। द्रौपदी का अपमान होने पर भीष्म का चुप रहना एक ऐसा ही उदाहरण है। भीष्म को अपना कर्तव्य न निभाने के कारण मरना पड़ा। अतः, यदि हमारे पास अधिकार हैं, तो निश्चित रूप से हमें अन्याय को दूर करने के लिए कदम उठाने की आवश्यकता है।
गीता में हम देखते हैं कि अर्जुन एक क्षत्रिय है किन्तु वह एक ब्राह्मण की भाँति आचरण कर रहा है। एक ब्राह्मण की भाँति, वह उन लोगों को क्षमा करना चाहता है जो उसे ही चोट पहुँचा रहे हैं, यह जानते हुए भी कि एक क्षत्रिय होने के नाते, दुर्बलों की रक्षा करना उसका कर्तव्य है। इस कर्तव्य को निभाने में विफल होने पर उसके विरोधी न केवल अर्जुन को अपितु समाज के अन्य लोगों को भी हानि पहुँचाऐंगे।
गीता के पहले अध्याय में, श्रील प्रभुपाद कहते हैं – क्षमा एक व्यक्तिगत गुण है, यह किसी सरकार अथवा राज्य की नीति नहीं हो सकती। कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को क्षमा कर सकता है जिसने उसे चोट पहुँचाई हो, किन्तु अदालतें सभी अपराधियों को क्षमा नहीं कर सकतीं। यदि चीन भारत पर हमला करे और भारत कहे कि हम आपको क्षमा करते हैं, तो चीन हमारे सारे क्षेत्र पर कब्जा कर लेगा। व्यक्तिगत स्तर पर सद्गुणों को विकसित करना अच्छा है किन्तु सभी सद्गुणों को कानूनी अथवा सरकारी नीति के रूप में नहीं अपनाया जा सकता।
(ii) हमारा स्वभाव कैसा है: हमारी भूमिका के अतिरिक्त, बहुत कुछ व्यक्तिगत स्वभाव पर भी निर्भर करता है। सभी पाँचों पाण्डव क्षत्रिय थे लेकिन उनमें से युधिष्ठिर के स्वभाव में ब्राह्मण के गुण अधिक थे जबकि भीम शुद्ध क्षत्रिय स्वभाव का था। छोटे से उकसावे पर भी, भीम लड़ने के लिए उतावला हो जाता, जबकि युधिष्ठिर शान्ति से समस्या का हल करने का प्रयास करते। कभी-कभी तो वे कुछ अधिक ही सहन करने का सुझाव दे देते थे। जब विराट के राज्य में, कीचक ने द्रौपदी से छेड़छाड़ करने का प्रयास किया, तो युधिष्ठिर ने द्रौपदी को इस दुर्व्यवहार को सहने का सुझाव दिया। द्रौपदी ने यह सुझाव नहीं माना, क्योंकि वह जानती थी कि कीचक सुधरने वाला नहीं। वह भीम के पास गई और भीम ने कीचक को उचित सबक सिखाया। यहाँ यह बात समझने वाली है कि हालाँकि धर्म के सिद्धांत सार्वभौमिक हैं, किन्तु धर्म का आचरण व्यक्तिगत है। ऐसा सम्भव है कि दो लोग धर्म का पालन कर रहे हों किन्तु उनका पालन करने की विधि भिन्न हो सकती है।
(iii) वह परिस्थिति क्या है: जब श्रील प्रभुपाद ने देखा कि गौड़ीय मठ (श्रील प्रभुपाद के गुरु द्वारा स्थापित संस्था) कृष्णभक्ति का प्रचार में अधिक प्रयास नहीं कर रहा है, तो उन्होंने अपने गुरु भाइयों को उकसाया कि वे प्रचार पर ध्यान दें। एक प्रकार से यह धृष्टता थी क्योंकि श्रील प्रभुपाद एक गृहस्थ थे और मठ के बाहरी व्यक्ति थे और उनके गुरुभाई सन्यासी थे और मठ में कार्यरत थे। श्रील प्रभुपाद उनकी आलोचना करते कि उनके गुरुभाई मात्र खा-पीकर संतुष्ट हैं, अपने-अपने मठों में चैन से जीवन बिता रहे हैं और मात्र गुरुदेव को व्यास-पूजा पर पुष्प चढ़ाकर अपने कर्तव्य की भरपाई कर रहे हैं, जबकि गुरुदेव का मिशन दम तोड़ रहा है। जब उन्होंने देखा कि इतना कहने पर भी उनके गुरु-भाइयों के कानों पर कोई जूँ नहीं रेंगी, तो उन्होंने अनुभव किया कि इस परिस्थिति को बदलना व्यर्थ होगा। अतः उन्होंने इस्कॉन संस्था आरम्भ की। एक अनुभवी व्यापारी होने के नाते वे अपनी एक स्वतंत्र संस्था आरम्भ कर सके। श्रील प्रभुपाद ने इस्कॉन की स्थापना स्वयं को सर्वेसर्वा स्थापित करने के लिए नहीं किन्तु कृष्णभक्ति के प्रचार के उद्देश्य को पूरा करने के लिए की थी। उन्होंने पूरी निष्ठा के साथ इस्कॉन की स्थापना की और हम सभी इस उत्कृष्ट संस्था के लाभार्थी हैं!
निश्चित रूप से, यदि कुछ गलत है, तो हमें इसे ठीक करने का दायित्व लेना चाहिए, किन्तु हमें देखना होगा कि क्या वास्तव में यह सीधे-सीधे हमारे अधिकार क्षेत्र में है। ऐसी परिस्थिति में हम वरिष्ठ भक्तों से अथवा अपने हृदय में स्थित परमात्मा से परामर्श कर सकते हैं, और फिर अपना निर्णय लें। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम श्रीकृष्ण की सेवा के भाव से कार्य कर रहे हैं और सुधार का हमारा प्रयास वास्तव में कुछ रचनात्मक परिणाम दे पाएगा। किन्तु यदि हम श्रीकृष्ण से नहीं जुड़े हुए हैं, पर अपनी अलगाववादी मानसिकता के कारण एक सुधारक के रूप में कार्य करते हैं, तो भले ही हम विशुद्ध रूप से प्रेरित क्यों न हों, हम परिस्थिति को मात्र अस्थायी रूप से ही ठीक कर पाऐंगे।
श्रील प्रभुपाद के गुरु, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का एक उकसाने वाला उद्धरण है, जिसमें वे कहते हैं कि जगत को किसी सुधारक की आवश्यकता नहीं है और जो ऐसा सोचता है, यह उनकी अपनी मानसिकता है जिसे सुधार की आवश्यकता है। यहाँ उनका अर्थ यह नहीं है कि स्थिति को सुधारने की आवश्यकता नहीं है। उनका आशय यह है कि जगत पहले से ही एक सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञ के नियंत्रण में है; जगत को हमारे नियंत्रण की आवश्यकता नहीं है। हमें स्व-नियुक्त सुधारक नहीं बनना चाहिए। सर्वप्रथम, हमें सर्वोच्च सुधारक अर्थात भगवान का सेवक बनने का प्रयास करना चाहिए।
अंत में, परिस्थितियों को सुधारने की आवश्यकता है किन्तु सबसे पहले इस मानसिकता को सुधारना होगा कि “मैं परिस्थिति को सुधारूंगा”। हमें सबसे पहले श्रीकृष्ण से जुड़ना होगा और श्रीकृष्ण के एक सेवक के रूप में कार्य करना होगा। तभी हम परिस्थिति को इस प्रकार सुधार सकेंगे जो चिरस्थायी होगा।
End of transcription.