Why don’t we make the Bhagavad-gita compulsory in schools in India?
Transcription :
Transcribed by: Keshavgopal Das
Question: Why don’t we make Bhagavad-gita compulsory in schools in India?
Answer: This is a question we should be asking from the Government of India. Let me try to answer it based on how I see it.
We live today in a multi-cultural world, where people are opposed to the idea of imposing any one faith on them. People believe that faith is a personal matter which should be chosen by an individual. These days, Bhagavad-gita is seen as a religious book; a book of Hindus. As long as Bhagavad-gita is seen as a religious book, it will be difficult for the government to make it mandatory. May be in future, if we have a government which rules by different principles then it is possible. However, it does not mean that nothing can be done to popularize Gita. What need to present Bhagavad-gita not as a religious book but as a book of wisdom. When it will be viewed as a book of wisdom in the Indian tradition that will make people more open.
Few years ago, a big attempt was made to make Bhagavad-gita as national book of India. It led to a lot of violent opposition from people saying that it will make India a theocracy or a radical Hindu country. In today’s world, religious pressure will not work. Bhagavad-gita needs to be repositioned as a book of wisdom. There are devotee scholars who are working in mainstream academia for this purpose. Beyond that, we, at our individual level, can do our part in sharing Gita’s message. However, we should be careful that we do not present Gita’s message as mandatory. When we present things as mandatory, people do it as ritual and they do not take it very seriously. For example, I sometimes do a class on Bhagavad-gita in colleges in India, where the authorities make it mandatory to attend. Such an arrangement can lead to five hundred or thousand students coming to the class. The number of students attending the class can appear impressive, but to such a crowd even if we give the best class, we find that the students are just not interested. The students are chatting on their phones, looking here and there. When we make things mandatory, people just switch-off. It is much better to share the message at an individual level. Change at a grass-root level is much more sustainable compared to when brought in a top-down fashion. In a top-down approach, we can have a lot of resources, but that will not necessary mean acceptance from others. In today’s ethos that will only lead to resistance.
In my childhood, I participated in Gita shloka recitation competition and won a prize. I thought Gita is only meant for memorizing some shlokas and win prizes. I never saw it as a book having practical relevance to me. When a friend came and gave me Bhagavad-gita, he requested me to read it. My first reaction was, I have already read it. However, when I saw him transformed I was surprised. My friend was a very materialistic person, but after transformation he appeared very sober, gentle, and cultured person. I thought that if he got so much transformed by reading the Gita, probably I missed something in my reading. Such lateral sharing of Gita is going to transform people in a much more sustainable way. Such an approach on sharing is very much within our control right now.
Yes, Bhagavad-gita has come from India, it is a national heritage, but unfortunately it is not being studied at all in India. Unfortunately, that is the way government’s situation and cultural trend is today. If we try to impose something it will be resisted and will not be accepted open mindedly or whole heartedly. Rather than waiting for something to come from top down, we just focus on doing what is in our power.
Srila Prabhupada, before he went to America, he had practically no resources. Bhagavad-gita was known but it was not known as it is now. When I recently met one of the editors of Srila Prabhupada in the early days of ISKCON, he told me about how Srila Prabhupada would give him manuscripts of his books for typing. He saw manuscripts were written with no margins on the pages. Srila Prabhupada was in such financial crisis in those days, that he had hardly any money to have paper. He would write on the paper from top left corner to the bottom right corner. Many of the papers he had written were the inside of the envelopes which he had received as letters. However, he did what he could. Now from that, a global movement has emerged. Millions and millions of Bhagavad-gita has been distributed and thousands and thousands of lives have been enriched by that wisdom. Krishna had its plan, he empowered Srila Prabhupada in an extra-ordinary way. However, it all started with Srila Prabhupada doing what was in his power. Surrender at one level means doing what we can with what we have right now. Just like you are sharing your appreciation of Gita here, you may share the same appreciation with others. There are many people who are naturally and voluntarily willing to take the wisdom of Gita if this is presented as wisdom to them. As Gita starts to be seen more of a wisdom book and the number of people viewing Gita in such a light increases, then there will be greater openness to accepting Gita.
End of transcription.
Transcription in Hindi
प्रश्न – हम भगवद्गीता को स्कूलों में अनिवार्य क्यों नहीं करते?
उत्तर– ये प्रश्न वास्तव में भारत सरकार से पूछा जाना चाहिए, पर यहाँ हम अपना मत आपके साथ साझा कर सकते हैं।
हम एक बहु-सांस्कृतिक जगत में रहते हैं, जहाँ लोग किसी एक मत को अन्यों पर थोपने के पक्षधर नहीं होते। लोग सोचते हैं कि विश्वास अथवा श्रद्धा एक निजी विषय है जिसका चुनाव करने का सबको अधिकार है। वर्तमान समय में भगवद्गीता को हिन्दुओं की एक धार्मिक पुस्तक के रूप में देखा जाता है। जब तक गीता को धार्मिक पुस्तक के रूप में देखा जाता रहेगा, सरकार के लिए इस अनिवार्य करना कठिन होगा। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि इन सब परिस्थितियों के होते हुए भी गीता की शिक्षा का प्रचार नहीं किया जा सकता। गीता को एक धार्मिक पुस्तक के रूप में देखने के बजाय इसे ज्ञान की पुस्तक के रूप में देखा जाना चाहिए। जब इस पुस्तक को भारतीय संस्कृति की एक ज्ञान एवं दर्शन की पुस्तक के रूप में देखा जाने लगेगा तब लोग इसे स्वीकार करने में अधिक उत्सुक होंगे।
कुछ वर्षों पूर्व जब गीता को राष्ट्रीय पुस्तक बनाने का प्रयास हुआ तो बड़ा विरोध हुआ था। लोगों ने कहा ऐसा करने पर भारत एक गणतंत्र की बजाय एक धर्मतंत्र अथवा एक कट्टर हिंदुवादी देश बन जाएगा। वर्तमान जगत में धार्मिक दबाव बनाने से बात नहीं बन सकती। हमें गीता को एक ज्ञान के ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत करना होगा। हमारी संस्था के कई विद्वान भक्त विश्व में मुख्यधारा से जुड़े शैक्षणिक संस्थानों में इस प्रकार का प्रयास पहले ही कर रहे हैं। किन्तु साथ ही साथ हम भी अपने निजी स्तर पर प्रयास कर सकते हैं। किन्तु हमें ध्यान रखना होगा कि हम गीता के संदेश को अनिवार्य शिक्षा के रूप में न प्रस्तुत करें। जब हम किसी बात को अनिवार्य बना देते हैं तो लोग उसे बोझ समझने लगते हैं और गंभीरता से नहीं लेते। हमने अकसर देखा है जब किसी विद्यालय में गीता पर कोई वार्ता रखी जाती है तो अधिकारीगण विद्यार्थियों का उसमें आना अनिवार्य बना देते हैं। ऐसा करने पर पाँच सौ, हजार बच्चे तो आ जाते हैं किन्तु अच्छी से अच्छी वार्ता प्रस्तुत करने के उपरांत भी बच्चे संदेश में रुचि नहीं लेते। वे इधर-उधर देखते रहेंगे, आपस में बतिया रहे होंगे पर ध्यान नहीं देंगे। कहने का अर्थ है कि जब किसी बात को अनिवार्य बना दिया जाता है तो लोग उससे भागने लगते हैं। अनिवार्य बनाने की बजाय हमें गीता के संदेश को व्यक्तिगत स्तर पर अन्यों तक पहुँचाना चाहिए। जब व्यक्ति इसके संदेश को जीवनोपयोगी एवं चेतना के उत्थान का माध्यम समझकर ग्रहण करेगा तो ऐसा बदलाव अधिक टिकाऊ होगा।
हमने अकसर देखा है कि कई बार बच्चे गीता के श्लोक उच्चारण प्रतियोगिता में भाग लेते हैं। वे श्लोकों को स्मरण करते हैं और पुरस्कार जीतते हैं। एक तरह से देखा जाए तो गीता के श्लोकों का स्मरण करना हमारे आध्यात्मिक कल्याण के लिए अच्छा है किन्तु इससे भी अच्छा है इस ज्ञान पुस्तिका में अन्तर्निहित ज्ञान को आत्मसात कर उससे अपने जीवन में सुन्दर बदलावों को लाना। इसके ज्ञान को आत्मसात कर हम एक भौतिकतावादी, मानसिक रूप से अशांत व्यक्ति से एक सभ्य, शांत, सुसंस्कृत व्यक्ति बन सकते हैं। इस प्रकार जब लोग गीता को ऐसी पुस्तक के रूप में देखने लगते हैं जो जीवन में बड़े सुंदर बदलाव ला सकती है तब वास्तव में लोग इस पुस्तक को सीखने में स्वतः ही रुचि लेने लगेंगे। ऐसा बदलाव लाना बिल्कुल भी कठिन नहीं। यह हमारे, आपके, हम सबके बस में है।
गीता भारत की पुस्तक है, यह इसकी राष्ट्रीय धरोहर है, किन्तु दुर्भाग्यवश भारत में इसका अध्ययन अधिक नहीं होता। वर्तमान में भारत में सरकारों की स्थिति और सांस्कृतिक ढर्रा कुछ ऐसा ही है। यदि किसी बात को थोपा जाएगा तो उसका विरोध होगा और उसको हृदय से स्वीकार्यता नहीं मिलेगी। इस बात की प्रतीक्षा करने की बजाए कि यह एक दिन स्कूलों में अनिवार्य रुप से पढ़ाई जाएगी, हमें अपनी ओर से इस पुस्तक की शिक्षा का यथासंभव प्रसार-प्रचार करने में आगे आना चाहिए।
हमें श्रील प्रभुपाद के जीवन से भी प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होंने बड़ी कठिन परिस्थितियों को झेलते हुए गीता पर अपनी टीका (भगवद्गीता यथारूप) लिखी। उनके पास धन का बड़ा अभाव था। उनको जो पत्र आते थे वे उनके लिफाफों के भीतर की सतह का भी प्रयोग कर उन पर अपना लेखन करते थे। आज उसी भगवद्गीता यथारूप से एक विश्व-व्यापी आंदोलन (इस्कॉन) खड़ा हो गया है। करोड़ों गीता की पुस्तकों का वितरण और इसके पठन-पाठन से लाखों लोगों का जीवन परिवर्तित हुआ है। किन्तु ये सब आरम्भ हुआ श्रील प्रभुपाद के एक विनम्र प्रयास से। इस प्रकार हम भी अपना छोटा-मोटा प्रसास कर सकते हैं। सर्वप्रथम हम स्वयं गीता के एक अच्छे विद्यार्थी बनें और फिर अन्यों को इसके ज्ञान का उपहार दें। जैसे-जैसे गीता को लोग जीवन में ज्ञान का प्रकाश लाने वाली पुस्तक के रूप में देखेंगे वैसे-वैसे लोगों में इसको स्वीकार करने के प्रति अधिकाधिक तत्परता दिखेगी।
End of transcription.